उत्तराखंड

पलायन की त्रासदी झेलते उत्तराखंड के गाँव

बड़ी तादाद में गैर पर्वतीय लोग यहां संपत्तियां खरीदकर उत्तराखंड के स्थायी निवासी बन गए. दूसरे पड़ोसी हिमालयी राज्यों जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश में इस तरह की छूट दूर-दूर तक भी मुमकिन नहीं

उत्तराखंड में पलायन की त्रासदी पर हाल में जारी की गई रिपोर्ट ने 21 बरस पूर्व उत्तर प्रदेश के पर्वतीय जिलों को मिलाकर एक हिमालयी प्रदेश के गठन के बाद शासन-प्रशासन की दिशाहीनता और विकास के दावों की कलई खोल दी. रिपोर्ट में उत्तराखंड के उन 14 मानव शून्य गांवों की तस्वीर भी बयान की गई है जो तिब्बत और नेपाल की सीमा पर बसे हैं. हालांकि उत्तराखंड के गांवों में रोजगार और शिक्षा के अभाव में लोगों का पलायन 60 से 80 के दशक से ही गति पकड़ता रहा जो कि राज्य बनने के पहले और बाद में गति पड़ता रहा.पर्वतीय लोगों की पहचान को संरक्षित करने, रोजगार, शिक्षा व स्वास्थ्य और विकास का मॉडल यहां के भौगोलिक परिवेश की तर्ज पर ढालना ही पर्वतीय राज्य के आंदोलन और राज्य बनाने के मकसद की मूल अवधारणा थी. लेकिन सालों में इस राज्य की सरकारों ने इन लक्ष्यों को पाने के लिए कैसे काम किया, पलायन आयोग की रिपोर्ट उसी नाकामी का दस्तावेज है.

कुल 53,483 वर्ग किमी के क्षेत्र में हिमाचल, तिब्बत, नेपाल और तराई में उत्तर प्रदेश से सटे उत्तराखंड के सुदूर गांवों से पलायन कोई एक दिन या रातों रात नहीं हुआ. अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के आसपास के गांवों के खंडहर में तब्दील हो जाने से राष्ट्रीय सुरक्षा का एक बड़ा सवाल भी पैदा हो गया.

अतीत से अंतर्राष्ट्रीय सीमा क्षेत्रों के ये गांव देश की सीमाओं के लिए सुरक्षा ढाल की तरह थे. बाहरी घुसपैठ या आक्रमण की सूरत में सदियों से इन गांवों के वाशिदें ही सेना व सुरक्षा बलों के लिए बीहड़ रास्तों और भौगोलिक स्थिति समझने का बड़ा सहारा बनते थे.

भारत-चीन सीमा से जुड़ी 3,488 किमी की वास्तविक नियंत्रण रेखा इसी क्षेत्र से होकर गुजरती है. जुलाई 2017 में चमोली के बाराहोती क्षेत्र में चीनी सेना घुसपैठ कर चुकी है. 1962 की लड़ाई में ही चीन ने अक्साई चिन क्षेत्र पर कब्जा जमाया था.

अवकाश प्राप्त नौकरशाह एसएस नेगी की अध्यक्षता में बने पलायन आयोग ने मात्र पिछले 10 साल में हुए पलायन का ही अपनी रिपोर्ट में जिक्र किया है. 2008 के पहले पलायन के कारण क्या थे इस पर आयोग का मौन यह समझने के लिए काफी है कि पर्वतीय जिलों की आबादी राज्य बनते ही इतनी ज्यादा घटती चली गई कि 2008 में पर्वतीय जिलों की 6 विधानसभा सीटें खत्म कर देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंहनगर में मिला दी गईं.

उस वक्त तत्कालीन मुख्य निर्वाचन आयोग डॉ मनोहर सिंह गिल का कहना था कि आयोग विधानसभा क्षेत्रों की परीसीमन प्रक्रिया को आबादी के घनत्व के हिसाब से ही पूरा करेगा. हालांकि 2008 में उत्तराखंड की भाजपा सरकार व मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए आयोग पर यह दबाव बनाने की रत्ती भर भी कोशिश नहीं की कि पर्वतीय क्षेत्रों की विधानसभाओं में भी आबादी के मानदंड का मैदानी क्षेत्रों का मापदंड अपनाने से सुदूर क्षेत्रों में विकास के बजट में कटौती होगी और शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार सृजन जैसे अहम मामलों की उपेक्षा होगी.

अब खतरा यह है कि पहाड़ों में पलायन के कारण वहां आबादी घटने का क्रम इसी तरह जारी रहा और गैर पर्वतीय लोगों का वहां बसने का सिलसिला ऐसे ही चला तो 10 साल बाद उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में वहां के मूल लोगों के अल्पमत में आने से इस हिमालयी राज्य के गठन की पूरी अवधारणा ही ध्वस्त हो जाएगी.

पलायन के कारणों की विभिन्न वजहों का रिपोर्ट में महज जिक्र किया गया. सब लोग और सरकार चलाने वालों के लिए आयोग की रिपोर्ट में उल्लिखित की गई बातों में नया कुछ भी नहीं है. दो तरह का पलायन सब लोगों को दिखता है. एक तो लोग हमेशा के लिए ही उत्तराखंड छोड़ चुके. उनके घर और गांव बंजर हो चुके.

दूसरे वे लोग हैं, जिन्होंने अपना गांव छोड़ा लेकिन वे पहाड़ी गांवों से देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार, हरिद्वार, रामनगर, रूद्रपुर, या हल्द्वानी आ गए. उत्तराखंड के गांवों से मैदानी जिलों-कस्बों में बच्चों की पढ़ाई के नाम पर हुआ यह पलायन और भी अभिशाप बन गया.

गांवों से मैदानी शहरों में बसे लोगों ने पहाड़ों से उतरते ही अपनी खेती बाड़ी बंजर छोड़ दी. आज हालत ये हैं कि वे शहरी गंदगी के जिस रहन-सहन में रहने को विवश हैं, उससे वे अनेक तरह की बीमारियों के शिकार होते जा रहे हैं.

सरकारी स्कूलों की बदहाली की वजह से मैदानी क्षेत्रों के प्राईवेट स्कूलों में लोग अपने बच्चों का दाखिला करवाने लगे. अब यह तादाद दिनोंदिन बढ़ रही है. इसी का सबूत सरकार के वे आंकड़े हैं जिनके मुताबिक पूरे उत्तराखंड में 10 से कम संख्या वाले 700 स्कूलों को बंद करने के निर्देश दिए गए.

इससे अकेले कुमायुं मंडल में बीते सत्र में 394 स्कूल बंद कर दिए गए. सुदूर ग्रामीण अंचलों से अभिभावक अपने बच्चों को जिस गति से मैदानी क्षेत्रों या उत्तराखंड के बाहर के स्कूलों में भेज रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में उत्तराखंड के 2430 प्राइमरी स्कूल बंद होने के कगार पर पहुंच चुके होंगे. सरकारी स्कूलों में शिक्षा की बदहाली पलायन का प्रमुख कारण है.

पलायन आयोग द्वारा राज्य बनने के पहले 8-10 वर्षों के हालात की अनदेखी करने से पलायन के कारणों की सही तस्वीर का पता लगाया जाना मुमकिन नहीं. रिपोर्ट कहती है कि 10 साल में 700 गांव बंजर हो गए. 3.83 लाख लोगों ने अपना गांव ही छोड़ दिया. इनमें से 1,18,981 लोगों ने स्थायी तौर पर उत्तराखंड को बाय-बाय कह दिया. हालांकि रिपोर्ट को जिस हड़बड़ी व जल्दबाजी में तैयार किया गया, उसके पीछे मकसद लोगों की समझ से परे है.

आयोग ने दावा किया कि मात्र 59 दिनों में 7,950 गांवों का घर-घर जाकर सर्वे किया गया. यानी औसतन एक ही दिन में 135 गांवों में पलायन के कारणों की जमीनी हकीकत का पता लगाया गया. ज्यादातर लोगों को आयोग का यह दावा अविश्वसनीय लगता है कि कठिन भौगोलिक परिस्थतियों वाले गांवों से कैसे वास्तविक जानकारियां जुटाई गई होगीं.

यह सच्चाई छिपी नहीं है कि राज्य बनने के बाद यहां की सरकारों ने पहाड़ों के बुनियादी सवालों शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, खेती बाड़ी की ओर ध्यान देने के बजाय कुर्सी और पद, पैसा और संपत्तियां जुटाने की होड़ को और बढ़ावा दिया. राज्य बनने के बाद यहां की राजनीति में जिस तरह का ओछापन इन तमाम वर्षों उत्तराखंड की राजनीति में देखने को मिला, उससे आम लोगों को काफी वेदना हुई है.

खास तौर पर वे लोग व परिवार जिन्होंने अलग राज्य आंदोलन में कुछ न कुछ त्याग व कुर्बानियां दीं, उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया. इन दिनों गैरसैण में स्थायी राजधानी बनाने की मुहिम में जुटे आंदोलनकारियों का आरोप है कि देहरादून में अस्थायी राजधानी बनाए रखकर माफिया और सत्ता के दलालों की एक ऐसी पौध तैयार कर दी गई है जो अब बड़ी होकर इस राज्य के हक हकूक और संसाधनों को खुलेआम लूटने में लगी है. राजनीतिक सरंक्षण व समर्थन के बिना ऐसे लोगों का प्रभुत्व बढ़ना मुमकिन नहीं है.

कई प्रबुद्ध लोग मानते हैं कि सरकार को पलायन आयोग बनाने के बजाय पलायन रोकने का ठोस खाका खींचना चाहिए था. ऐसा भी आम तौर पर लोग मानते हैं कि सरकार ने सवा साल में पलायन रोकने का कोई ठोस काम किया होता तो हालात कुछ सुधार की ओर होते और पहाड़ के भीतर अब तक राजधानी शिफ्ट हो सकती थी.

ज्ञात रहे कि राज्य बनते ही राजधानी गैरसैण बनाने के पक्ष में 62 प्रतिशत जनता ने रमाशंकर कौशिक समिति को अपनी राय दी थी. वह रिपोर्ट सरकार के पास धूल फांक रही है.

पलायन आयोग की रिपोर्ट बयान करती है कि सीमा क्षेत्रों में इंसान के जिंदा रहने की जरूरतों के प्रति सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी रहीं. आम लोग नेता और अफसरों व पर खुलकर आरोप लगाते हैं कि देहरादून व उसके आसपास खरीदी गई नामी-बेनामी जमीनों की कीमतों का गणित लगाने व हर साल जमीनों के सर्किल रेट बढ़ने के इंतजार में यहां से टस से मस नहीं होना चाहते.

इसकी बड़ी वजह यह भी है कि नौकरशाही की पहाड़ों में पोस्टिंग के बजाय जोड़-तोड़ और जुगाड़ से देहरादून व आसपास अपनी स्थायी तैनाती बनाए रखने में ही पूरी ताकत लगी रहती है.

एक विडंबना ही है कि उत्तराखंड में जमीन खरीद बिक्री का कानून बाकी हिमालयी राज्यों की तरह सख्त नहीं बनाया गया. तराई और मैदानी क्षेत्रों के अलावा पहाड़ों के भीतर पर्यटन और होटल व व्यावसायिक इस्तेमाल की जमीनों, होटलों को राज्य के बाहरी यानी गैर उत्तराखंडी मूल के लोगों ने खरीद लिया.

इन खरीदारों में सबसे ज्यादा दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार के विभिन्न शहरों के लोग हैं. बड़ी तादाद में गैर पर्वतीय लोग यहां संपत्तियां खरीदकर उत्तराखंड के स्थायी निवासी बन गए. दूसरे पड़ोसी हिमालयी राज्यों जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश में इस तरह की छूट दूर-दूर तक भी मुमकिन नहीं है क्योंकि वहां दूसरे प्रांतों के निवासी उत्तराखंड की तरह जमीन नहीं खरीद सकते हैं.

हालांकि एक ही परिवार के तीन लोग अलग-अलग जमीन खरीदते हैं तो वे शहरी क्षेत्र में 750 वर्ग मीटर जमीन और मकान और संपत्तियां नहीं खरीद सकते. लेकिन बाहर के बिल्डर्स और प्रॉपर्टी का काम करने वाले भूमि की खरीद फरोख्त में निवेश करके दो तीन साल के भीतर ही अपनी जमीन की बिक्री करके तीन गुना मुनाफा अर्जित कर रहे हैं.

राज्य बनने के बाद यहां जमीन कानून को सख्त बनाए जाने पर ध्यान नहीं दिया गया. 2007 में कांग्रेस के हटने के बाद भाजपा ने कुछ सीमित पाबंदी तो लगाई लेकिन कृषि भूमि की खरीद बिक्री के जरिए बड़े पैमाने पर लैंड यूज बदलकर आवासीय कॉलोनियां बनाने और देहरादून समेत कई बेहद संवेदनशील पर्वतीय क्षेत्रों में बहुमंजिला इमारतें बनाने की अनमुति देने से शहरों व तराई क्षेत्रों के कस्बों में आबादी का बेतहाशा बोझ बढ़ता चला गया.

राज्य बनने के बाद आबादी का बोझ सबसे ज्यादा देहरादून जिले में बढ़ा. उसके बाद हरिद्वार और उधमसिंहनगर व नैनीताल जिले में जनसंख्या बढ़ती गई.

18 साल पहले राज्य बना लेकिन परंपरागत पर्वतीय जनजीवन की खुशहाली के लिए कुछ भी ठोस दिशा नीति तय नहीं की गई. चूंकि उत्तराखंड उत्तर प्रदेश के पर्वतीय हिस्सों को अलग करके एक पर्वतीय राज्य बनाया गया लेकिन व्यावहारिक तौर पर पर्वतीय प्रदेश की जीवन पद्धति के हिसाब से विकास का आधारभूत ढांचा बनाने के बारे में सिर्फ जुबानी जमा खर्च होता रहा.

असल में अतीत से ही इस संवेदनशील पर्वतीय अंचल की समस्याएं बाकी उत्तर प्रदेश से एकदम जुदा थीं. लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि राज्य बनने के बाद यहां बदला कुछ भी ज्यादा नहीं. देहरादून में राजधानी उत्तर प्रदेश की राजधानी के एक्सटेंशन कांउटर की तरह काम कर रही है.

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